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श्रीरामकृष्ण कहा करते थे कि फूल खिलने पर रसपान करने के लिये दूर-दूर से भौंरे चले आते हैं, इसी प्रकार किसी सन्त-महापुरुष के जीवन में धर्मभाव तथा आध्यात्मिक अनुभूतियों का प्राकट्य होने पर दूर-दूर के जिज्ञासु तथा साधक उनके पास से उस परम आनन्द का कण पाने के लिये खिंचे चले आते हैं । उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग कलकत्ते के निकट दक्षिणेश्वर के मन्दिर-परिसर में बिताया और उस दौरान विभिन्न मतों तथा सम्प्रदायों के असंख्य भक्त, साधक तथा जिज्ञासु उनके दर्शनार्थ तथा उनसे सत्संग करने आये थे । वे अपनी बातचीत के दौरान यथाप्रसंग उनमें से कइयों का उल्लेख किया करते थे ।
इस ग्रन्थ में वर्णित लोगों में से कुछ तो केवल आगन्तुक थे – आकर उनसे मिले और उनसे चर्चा करके अपने जीवन के उपयुक्त शिक्षा को ग्रहण करके चले गये । फिर बहुत-से ऐसे भी थे, जो उनके अन्तरंग या बहिरंग शिष्य हुए; जिन्होंने धर्म-जीवन को गम्भीरता से लिये, उसे अपनी जीवनचर्या बनाया और भविष्य में जगद्धिताय बहुत-सा कार्य सम्पन्न किया ।
श्रीरामकृष्ण के जीवन के अन्तिम पर्व में जगदम्बा ने उन्हें बताया था कि कुछ त्यागी तरुण भक्त उनके सान्निध्य में आनेवाले हैं, जो उनके नवीन भाव को सारे विश्व तथा भावी पीढ़ियों तक पहुँचाने में सेतु का कार्य करेंगे । वे उन तरुण भक्तों से मिलने के लिये अत्यन्त उत्सुक हो गये । उन्होंने बताया था, “उस उत्सुकता एवं व्यग्रता की कोई सीमा नहीं थी । दिन भर उस व्यग्र भाव को मैं किसी तरह अपने हृदय में धारण किये रहता था । विषयी लोगों का मिथ्या विषय-प्रसंग जब मुझे विषवत् प्रतीत होता था, तब मैं यह सोचने लगता कि उनके आने पर ईश्वरी चर्चा कर मैं अपनी अन्तरात्मा को शान्त करूँगा, कानों को तृप्त करूँगा, तथा उनसे अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों को कहकर हृदय को हल्का करूँगा । ... परन्तु दिन व्यतीत होकर सायंकाल होने पर मेरे लिए धैर्य धारण रख पाना असम्भव हो जाता था, तब मैं यह सोचा करता था कि आज का दिन भी निकल गया, फिर भी कोई नहीं आया । आरती की शंख-घण्टा ध्वनि से जब मन्दिर गूँजने लगता, तब मैं मानसिक यातना से अस्थिर हो जाता और बाबू लोगों की कोठी की छत पर चढ़कर – ‘तुम सब कहाँ हो, आओ रे, आओ – तुम लोगों को देखे बिना मुझसे रहा नहीं जाता’ – इस प्रकार उच्च स्वर से चिल्लाया करता था । माता अपनी सन्तान को देखने के निमित्त ऐसी व्याकुलता का अनुभव करती है या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता; सखा को अपने सखा के साथ मिलने और प्रणयी-युगल को आपस में मिलने के लिए इस तरह आचरण करते हुए भी मैंने कभी नहीं सुना है – मेरा प्राण इतना व्याकुल हो उठा था ! इसके कुछ ही दिन बाद धीरे-धीरे भक्तगण उपस्थित होने लगे ।”
इन तरुण भक्तों में सर्वप्रमुख थे स्वामी विवेकानन्द । उनके पास आनेवाले भक्तों में कुछ आगे चलकर संन्यासी हुए और अनेकों ने गृहस्थ आश्रम स्वीकार किया था । प्रस्तुत ग्रन्थ में उसी तरह के कुछ प्रमुख आगन्तुकों और गृही तथा त्यागी भक्तों के साथ उनकी प्रारम्भिक मुलाकातों का विवरण दिया गया है ।
उन्होंने अपने एक शिष्य से कहा था, “यहाँ सब आ रहे हैं, जैसे कलमी की बेल – एक जगह पकड़कर खींचने से पूरा चला आता है ।” साथ ही उन्होंने यह भी कहा था, “बाउलों का दल एकाएक आया, नाच-कूदकर गाया-बजाया और एकाएक चला गया । आया और गया, परन्तु किसी ने पहचाना नहीं ।”