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Bhartruhari Pages
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भर्तृहरि के जीवन के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता । कहते हैं कि ईसा-पूर्व की पहली या दूसरी शताब्दी में महाराज गन्धर्व सेन उज्जैन के राजा थे । वे एक सुयोग्य शासक थे । उनकी दो पत्नियाँ थीं । पहली पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि और दूसरी के पुत्र थे विक्रमादित्य, जिनके नाम पर विक्रमीय संवत् प्रचलित हुआ । पिता की मृत्यु के उपरान्त पहले भर्तृहरि को राज्यभार मिला, परन्तु कुछ काल बाद ही उन्हें वैराग्य हुआ और उन्होंने राज्य अपने कनिष्ठ भ्राता विक्रम को दे दिया, जो शकारि विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । कहते हैं कि भर्तृहरि विख्यात योगी मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरखनाथ के समकालीन थे और इन्होंने चारपतिनाथ का शिष्यत्व ग्रहण करके नाथ सम्प्रदाय को अपना लिया था । उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर अब भी ‘भरथरी की गुफा’ के नाम से उनका तपोस्थल विद्यमान है । अलवर राज्य के एक गहन वन में उनकी समाधि भी मिलती है, जिसके सातवें द्वार पर एक अखण्ड दीपक जलता रहता है, जिसे ‘भर्तृहरि की ज्योति’ कहते हैं ।
भारतीय परम्परा में जीवन के चार उद्देश्य बताये गये हैं – धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष । महाभारत में वेदव्यास कहते हैं कि धर्म अर्थात् नीति का पालन करने से अर्थ तथा काम की उपलब्धि होती है – धर्मात् अर्थश्च कामश्च । अतः व्यक्ति नीति तथा स्वधम के आधार पर संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ, अन्ततः वैराग्य के द्वारा परम पुरुषार्थ रूप मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है ।