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PARMARTHA PRASANGA -H-35

H038 Parmartha Prasanga (परमार्थ प्रसंग)

Non-returnable
Rs.35.00
Author
Swami Virajananda
Pages
135
Translator
Sri Srikrishna Gangarade

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Product Details

श्रीरामकृष्ण संघ के वर्तमान अधिनायक पूज्यपाद विरजानन्द महाराजजी का शरीर लम्बे अरसे से अस्वस्थ रहने के कारण तथा वे जितने कुछ महीने बेलुर-मठ में रहते हैं उतने समय में, मठ के अनेक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों में उनके व्यस्त रहने के कारण, जिज्ञासु भक्त लोग उनके साथ र्धािमक विषयों पर इच्छानुरूप वार्तालाप करने की विशेष सुविधा ही नहीं पाते। बहुतों को प्रत्यक्ष या परोक्ष में इसके लिये दु:ख प्रकाश करते हुए सुना जाता है। श्रीमहाराजजी भी अपनी इस अक्षमता के कारण विशेष कुण्ठित होते और व्यथा का अनुभव करते हैं। इस अवस्था का कुछ प्रतिकार हो सके, इस निमित्त वे कुछ समय से धर्म और आध्यात्मिक साधना सम्बन्धी अपनी विचारधारा को, मन में जब जैसी उठे, खासकर अपनी दीक्षित सन्तानों के लिये लिपिबद्ध कर, रखते रहे हैं। बाद में इससे सभी धर्मपिपासुओं के साधनापथ में विशेष सहायता मिल सकेगी, ऐसा अनेकों का अनुरोध होने पर, उन्होंने उस समस्त विचारधारा को वर्तमान पुस्तक के रूप में मुद्रित करने की अनुमति दे दी। सन् १८९१ में, सत्रह वर्ष की अवस्था में संसार त्याग कर और वराहनगर मठ में योगदान करने के पश्चात्, स्वामी विवेकानन्द व भगवान श्रीरामकृष्ण देव के अन्यान्य पार्षदों के साथ दीर्घ ५८ वर्षव्यापी घनिष्ठ संग व सेवा, शास्त्रानुशीलन, तपस्या और कर्ममय जीवन के फलस्वरूप उनके अनुभव और ज्ञानराशि का किंचित् आभास इस पुस्तक के द्वारा प्रकाशित हुआ है – यह हमारे परम सौभाग्य की बात हैं, इसमें सन्देह नहीं।

बड़ी बड़ी जटिल दार्शनिक समस्याओं पर विचार और उनके विषय में निष्कर्ष प्रतिपादित करना इस पुस्तक का उद्देश्य नहीं। जिनके अन्त:करण में धर्मभाव तथा आध्यात्मिक प्रेरणा के अभ्युदय के फलस्वरूप, इस विषय में कुछ प्रत्यक्ष उपलब्धि की तीव्र आकांक्षा जाग्रत हुई है, तथा जो संसार के नानाविध बाधा-विघ्न, घात-प्रतिघात और व्यर्थता के साथ युद्ध करते हुए अपने क्षुद्र शक्ति-सामथ्र्य द्वारा साफल्य-लाभ में अपने आपको निरुत्साह और असहाय महसूस करते हों, उन्हें श्रेय के पथ पर दृढ़ता से चरण संस्थापन पूर्वक आगे बढ़ने के लिये मार्गप्रदर्शन तथा प्रोत्साहन-प्रदान में ही इन प्रसंगों की सार्थकता है। नये साधक को प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन में जिन समस्त चित्तविक्षेपकारी छोटे बड़े अनेक संशयों और समस्याओं का मुकाबला करना पड़ता है उनकी सुसंग आलोचना और तद्विषयक व्यावहारिक समाधान भी इस पुस्तक का एक वैशिष्ट्य है; साथ ही इस उपदेशावली के आधार स्वरूप उच्च आध्यात्मिक सिद्धान्त भी इसमें प्रचुर परिमाण में मौजूद हैं।

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