
स्वामी विवेकानन्दजी ने अपने एक पत्र में लिखा था कि श्रीरामकृष्ण का शिष्य होना कोई साधारण बात नहीं। इस ग्रन्थ के चरित्रनायक स्वामी ब्रह्मानन्दजी (पूर्वाश्रम में राखाल) को युगावतार एवं त्यागमूर्ति भगवान् श्रीरामकृष्ण ने जगदम्बा के दिव्य आदेश से मानसपुत्र (अर्थात् आध्यात्मिक सन्तान) के रूप में स्वीकार किया था तथा पुत्रवत् स्नेहदान के साथ साथ एक शिष्य के नाते उन्हें अध्यात्म मार्ग में भी अग्रसर किया था। अतः इन दोनों में ‘पिता-पुत्र’ तथा गुरु-शिष्य का अलौकिक सम्बन्ध था।
अपनी इस त्यागी सन्तान को श्रीरामकृष्ण ने अपनी दिव्यदृष्टि से कृष्ण-सखा के रूप में भी देखा था। वे उसे नित्यसिद्ध (अर्थात् सर्वदा ईश्वरोन्मुख) तथा ईश्वरकोटि भी कहते। उनका यह भी कहना है कि ‘राखाल युग युग में प्रत्येक अवतार का लीला-सहचर बनकर आया हैं।’ अतः राखाल वर्तमान युगावतार भगवान् श्रीरामकृष्ण के भी लीलासहचर थे। जन्म से ही सिद्ध राखाल अलौकिक तथा असीम भावराज्य के महान् दिव्यात्मा थे जो श्रीरामकृष्ण के अनुसार माँ जगदम्बा की शक्ति की एक कला (अर्थात् सोलहवें भाग) सहित जीव-शिक्षण के लिए इस धराधाम पर आविर्भूत हुए थे।
स्वामी ब्रह्मानन्दजी के दिव्य व्यक्तित्व के बारे में स्वामी विवेकानन्दजी ने भी एक बार कहा था, ‘वह जो राखाल है उसके सदृश अध्यात्म-भाव मेरा भी नहीं है।’
उपरोक्त विवरण से हम स्वामी ब्रह्मानन्दजी की आध्यात्मिक महानता का अनुमान मात्र ही लगा सकते हैं। लौकिक दृष्टि वाली साधारण बुद्धि किसी महापुरुष द्वारा लोकसंग्रहार्थ किये गये बड़े बड़े कार्यों की ही अपेक्षा करती है। परन्तु अतीन्द्रिय भावराज्य के दिव्यस्तरों में निमग्न त्रिगुणातीत स्वामी ब्रह्मानन्दजी तो सात्त्विक अहं रखकर ही अप्रत्यक्ष रूप में ‘कर्ता’ के रूप में रहा करते थे, अतः उनमें प्रत्यक्ष रूप से रजोगुण-प्रेरित कर्मविस्तार नहीं मिलता। उनके व्यक्तित्व में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे व्यवहारकुशल नहीं थे। आध्यात्मिक राज्य के उच्च अधिकारी स्वामी ब्रह्मानन्दजी में व्यावहारिक कर्मकुशलता को अपनी दिव्यदृष्टि से देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा था, ‘राखाल में राजबुद्धि है, यदि वह चाहे तो एक विशाल राज्य चला सकता है।’ श्रीरामकृष्ण का अभिप्राय समझकर तब से स्वामी विवेकानन्द तथा उनके गुरुभाइयों ने राखाल को ‘राजा’ कहकर पुकारना आरम्भ किया तथा श्रीरामकृष्ण ने आनन्दित होकर कहा था, ‘राखाल का ठीक नाम हुआ है।’ अतः रामकृष्ण संघ में स्वामी ब्रह्मानन्दजी को स्नेह एवं आदरपूर्वक ‘राजा महाराज’ भी कहा जाता है। कर्म क्षेत्र में उनकी दक्षता देखकर भगिनी निवेदिता ने कहा था, ‘स्वामी ब्रह्मानन्द को मैं अध्यात्मकेन्द्ररूप एवं कर्तारूप में देखती हूँ।’
‘राजा महाराज’ की लोककल्याणाभिमुखी व्यवहारकुशलता श्रीरामकृष्ण के आदर्शवाक्य ‘शिव ज्ञान से जीव सेवा’ तथा स्वामी विवेकानन्द द्वारा रामकृष्ण-संघ के लिए निर्धारित आदर्शवाक्य ‘आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च’ पर आधारित नरनारायण-पूजा थी। श्रीरामकृष्ण के आदर्शवाक्य ‘शिव ज्ञान से जीव सेवा’ के आधार पर नर में नारायण की निष्काम भाव से निष्ठापूर्वक सेवा करते हुए, उन्हें हृदय में धारण करते हुए उनकी उपलब्धि करनी चाहिये – कर्मयोग के लिए स्वामी ब्रह्मानन्दजी की यही पद्धति थी। उनके अनुसार, ‘अपने चरित्र निर्माण के बिना दूसरों का कल्याण नहीं हो सकता।’ साथ ही उनकी व्यवहारकुशलता चरित्रनिर्माण के रक्षक आधारस्तम्भों जैसे कि, निःस्वार्थता, त्याग, वैराग्य, तपस्या एवं पवित्रता पर आधारित होने के साथ साथ ईश्वरकेन्द्रित भी थी। इन साधनों से गठित चरित्र को ही वे लोककल्याणकारी कार्यों, जैसे कि अन्नदान, शिक्षा एवं ज्ञानदानादि में नियोजित करने के पक्ष में थे। चरित्रनिर्माण के इन साधनों के बिना कर्म कैसा होगा तथा उसका परिणाम भी कैसा होगा?
कर्म को लेकर आध्यात्मिक महापुरुष तथा सांसारिक बुद्धिवाले तथाकथित विद्वानों में क्या अन्तर होता है यह उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है। संसार को उचित मार्गदर्शन देने तथा उचित नीतिनिर्धारण के लिए ही ऐसे महापुरुष अवतरित होते हैं अन्यथा विकृत विचारधाराओं से संसार में मूल्यों का हनन होने से मानवता दिशाहीन होकर पथभ्रष्ट होती है।
स्वामी ब्रह्मानन्दजी में आध्यात्मिकता तथा व्यवहारकुशलता के इस अद्भुत समन्वय के कारण ही रामकृष्ण संघ के सञ्चालन तथा अपने गुरुभाइयों एवं भक्तों के मार्गदर्शन का कार्यभार स्वामी विवेकानन्दजी ने अपने ‘राजा’ के ही उत्तरदायित्वपूर्ण कन्धों पर रखना उचित समझा। स्वामीजी न केवल ‘राजा’ के निर्णयों पर निश्चिन्त रहते अपितु स्वामी ब्रह्मानन्दजी के निर्णयों की प्रशंसा भी करते थे। एक बार राहत कार्य के सम्बन्ध में अपने निर्णय के बारे में उन्होंने ‘राजा’ को लिखा था, ‘... मैं अच्छी तरह से देख रहा हूँ कि मेरी झ्दत्ग्म्ब् (अर्थात् नीति) ही गलत है, तुम्हारी ही ठीक है ...’ स्वामी ब्रह्मानन्दजी ने अपने जीवन के अन्त तक रामकृष्ण संघ के प्रथम परमाध्यक्ष का कार्यभार दक्षतापूर्वक निभाते हुए भविष्य में संघसञ्चालन के लिये मानदण्ड स्थापित किया।
बाह्यदृष्टि से धीर गम्भीर तथा स्थिर रहते हुए भी जब कभी उनकी आध्यात्मिक शक्ति की अभिव्यक्ति होती तो अनेकों को आश्चर्य होता कि इतनी शक्ति कहाँ थी। उनकी उपस्थिति तथा करुणादृष्टि से ही चैतन्य का स्फुरण होकर परिवेश उद्यम, उत्साह तथा आनन्द से अनुप्राणित होकर उनके भावानुयायी हो उठता था।
उच्च आध्यात्मिक भाव में रहने के कारण स्वामी ब्रह्मानन्दजी व्याख्यान आदि भी नहीं देते थे, श्रीमाँ सारदादेवी के दिव्य मातृत्व के समक्ष भावविह्वल होकर स्वयं को नियन्त्रित नहीं कर पाते थे। परन्तु उन्हीं स्वामी ब्रह्मानन्दजी की राजबुद्धि ऐसी थी कि स्वयं कर्म में लिप्त न होकर भी वे अपनी प्रबल संगठन शक्ति द्वारा किसी विशेष कार्य के लिये योग्य कार्यकर्ताओं का दल गठित कर सकते थे। उन्हें उत्साहित करके तथा ईश्वरार्पित बुद्धि से निष्काम कर्म करने के लिए प्रेरित करके उनमें आत्मविकास का भाव जागृत कर देते थे। उनके स्नेहभरे नेतृत्व में सभी उत्साहपूर्वक कार्य करते थे। उनकी निर्णयबुद्धि ऐसी थी कि असङ्गत लगनेवाले निर्णय भी समय बीतने पर उचित ठहरते थे; उनकी परामर्श बुद्धि अल्पशब्दों में ही कार्यशैली का निर्धारण कर देती थी; जब वे धीर गम्भीर होते तो उनकी उपस्थिति में रहना भी कठिन होता परन्तु हास-परिहास में वे साक्षात् आनन्दपुरुष हो जाते। इस प्रकार आध्यात्मिकता पर आधारित उनकी व्यवहारकुशलता मुण्डकोपनिषद् की उक्ति ‘ब्रह्मविद्या सर्वविद्याप्रतिष्ठा’ को चरितार्थ करती है।