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NEETI SHATAKAM H-22

H192 Niti Shatakam (नीति-शतकम् - भर्तृहरिकृत)

Non-returnable
Rs.22.00
Author
Bhartruhari
Pages
70
Translator
Swami Videhatmananda

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भर्तृहरि के जीवन के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता । कहते हैं कि ईसा-पूर्व की पहली या दूसरी शताब्दी में महाराज गन्धर्व सेन उज्जैन के राजा थे । वे एक सुयोग्य शासक थे । उनकी दो पत्नियाँ थीं । पहली पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि और दूसरी के पुत्र थे विक्रमादित्य, जिनके नाम पर विक्रमीय संवत् प्रचलित हुआ । पिता की मृत्यु के उपरान्त पहले भर्तृहरि को राज्यभार मिला, परन्तु बाद में उन्होंने वैराग्य लेकर अपने कनिष्ठ भ्राता विक्रम को राज्य दे दिया, जो शकारि विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । कहते हैं कि भर्तृहरि विख्यात योगी मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरखनाथ के समकालीन थे और इन्होंने चारपतिनाथ का शिष्यत्व ग्रहण करके नाथ सम्प्रदाय को अपना लिया था । उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर अब भी ‘भरथरी की गुफा’ के नाम से उनका तपोस्थल विद्यमान है । राजस्थान के अलवर के निकट एक गहन वन में उनकी समाधि भी मिलती है, जिसके सातवें द्वार पर एक अखण्ड दीपक जलता रहता है, जिसे ‘भर्तृहरि की ज्योति’ कहते हैं ।

श्री भर्तृहरि द्वारा लिखित संस्कृत के कई ग्रन्थों में उनकी शतक-त्रयी सर्वाधिक विख्यात है । यह ग्रन्थ भाषा, भाव, अभिव्यक्ति तथा रचना-कौशल की दृष्टि से अप्रतिम हैं । उनके अनेक वाक्यांश सूक्तियों के रूप में प्रचलित हो गये हैं । उनके लेखन में काव्य-कला, जीवन की वास्तविकता, नीति-सदाचार, मनोविज्ञान तथा आध्यात्मिक जीवन के लिये प्रेरणादायी विचारों की भी बड़ी सुन्दर प्रस्तुति हुई है । अतः कई दृष्टियों से यह ग्रन्थ सबके लिये पठनीय है ।

भारतीय परम्परा में जीवन के चार उद्देश्य बताये गये हैं – धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष । महाभारत में वेदव्यास कहते हैं कि धर्म अर्थात् नीति का पालन करने से अर्थ तथा काम की उपलब्धि होती है – धर्मात् अर्थश्च कामश्च । अतः व्यक्ति नीति तथा स्वधम के आधार पर संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ, अन्ततः वैराग्य के द्वारा परम पुरुषार्थ रूप मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है । इस प्रकार नीति तथा वैराग्य को यर्थार्थ रूप से समझकर अपने जीवन में चरितार्थ कर पाने पर जीवन में चारों पुरुषार्थों की उपलब्धि हो जाती है और जीव का मनुष्य शरीर धारण करना सार्थक हो जाता है । इस उद्यम में भर्तृहरि के दोनों ही लघु ग्रन्थ हमारे लिये दिशा-निर्देश का कार्य कर सकते हैं ।
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