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स्वामी जपानन्दजी रामकृष्ण संघ के एक वरिष्ठ संन्यासी थे। उनका जन्म 5 मई 1898 ई. को बुद्ध-पूर्णिमा के दिन हुगली जिले के चन्दननगर में हुआ था। 1912 ई. से ही रामकृष्ण मठ एवं रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय बेलुड़ मठ में उनका आना-जाना था। 1916 ई. में वे गृहत्याग करके मठ में आ पहुँचे। उन्हें रामकृष्ण परमहंस के संन्यासी शिष्यों — स्वामी ब्रह्मानन्द, स्वामी प्रेमानन्द, स्वामी शिवानन्द तथा स्वामी सुबोधानन्द का विशेष स्नेह प्राप्त हुआ। 22 अगस्त, 1918 के दिन उन्हें माँ श्रीसारदादेवी से मंत्रदीक्षा तथा 1920 ई. में वाराणसी में स्वामी ब्रह्मानन्दजी से संन्यास-दीक्षा प्राप्त हुई थी। वे रामकृष्ण मठ के ढाका तथा राजकोट आश्रमों के अध्यक्ष रहे। उन्होंने कई आपदा-राहत कार्यों का भी संचालन किया। 1936 ई. में ‘श्रीरामकृष्ण-जन्मशताब्दी’ तथा 1953 ई. में ‘श्रीसारदादेवी-जन्मशताब्दी’ के अवसर पर उन्हें प्रचार-कार्य सौंपा गया था, जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक सम्पन्न किया। 26 फरवरी 1972 के दिन वे ब्रह्मलीन हुए। संन्यास के पूर्व उन्होंने ईश्वर की खोज में उन्हीं पर निर्भर होकर एक अकिंचन परिव्राजक के रूप में काफी भ्रमण किया था। उनके अनुभवों से कदाचित् अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिले तथा उपकार हो, इस दृष्टि से उन्होंने ‘मानवता की झाँकी’ शीर्षक के साथ अपनी भ्रमण-गाथा लिखी थी, जो रामकृष्ण कुटीर, बीकानेर से प्रकाशित हुई। साधारण मनुष्यों में कैसे असाधारण गुण होते हैं इसका वर्णन स्वामी जपानन्दजी ने किया है। ये असाधारण गुण भगवान की अगाध अचिन्त्य लीलाशक्ति दर्शाते है।